Tuesday, August 18, 2015

इश्क़ की लत

कुछ कह दे कैसे भी कहे कहीं कहे
क्यों कर देती हूँ क्यों मान लेती हूँ
सब, बिना कुछ सोचे ,बिन हिचके।
कितनी बार उठना तो दूर हिलने का मन नहीं होता
पर तेरे लिए दौड़ लेती हूँ ख़ुशी ख़ुशी

कई बार तुम्हारी तल्खी देख
बात करना तो बहुत दूर की बात
पलट के देखने को जी नहीं करता
फिर तुम एक स्माइली भेज देते हो
मैं पिछला रवैया भूल जाती हूँ

मुझसे जुड़ी लगभग हर बात तुम भूल जाते हो
इस सब के बाद भी मेरा जो कुछ तुमसे जुड़ा है
उसमें कोई बेतरतीबी नहीं हुई कभी
मुझे सब सिलसिलेवार याद रहता है

तुम कितनी ही बातें बताना ज़रूरी नहीं समझते
कह देते हो बताने लायक कुछ नहीं था
जबकि मेरा हाल यह है कि
मामूली सी बात हो या कोई ज़रूरी किस्सा
तुमसे न कहूँ तो चैन नहीं पड़ता

छोटी से छोटी बात पे तुम्हारी बड़ी सी ईगो है
इससे उलट तुम्हारे सामने
मैं बहुत चाहती हूँ कि खड़ी रहूँ सीधी पर...
मेरा सेल्फ रेस्पेक्ट ऐन उसी वक़्त
न जाने कहाँ तेल लेने चला जाता है

तुम बता दो प्लीज़
कैसे बन जाऊं तुम्हारी सी
फ़िक्र न करूँ ज़रा सी भी
बदतमीज़ हो जाऊं थोड़ी सी
ईगो कर लूँ आसमान सा
करूँ न तेरा ध्यान ज़रा सा
कोशिश जारी

मैं हारी
इश्क़ की लत ...कमबख्त....
सब पे भारी

1 comment:

  1. इस इश्क की लत से पीछा छुडाना आसान नहीं है ...

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सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

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