Saturday, July 28, 2012

मज़ेदार..



मज़ेदार होता है न प्यार....
पता है....
पहले मैं अकेले तनहा हुआ करती थी
जबसे मोहब्बत हुई है मुझको
तुम्हारा प्यार, एहसास होता है पास
और इसके साथ होने पर भी
मैं अकेले ही अकेले हुई जाती हूँ.
अजीब है न प्रेम ?!
समझ नहीं आता इसका सर पैर कुछ
अच्छे खासे इंसान को एकलखुरा बना देता है .

अब तन्हाई की आदत हो गयी है
महफ़िल में मन नहीं रमता
कुछ भी तेरे बिन
न जाने क्यूँ अच्छा नहीं लगता .

12 comments:

  1. भीड़ में भी बस तुम ... और मैं

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    1. हाँ जी...बस तुम और मैं.

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  2. निधि जी , आपके ब्लॉग पर देरी से आने के लिए पहले तो क्षमा चाहता हूँ. कुछ ऐसी व्यस्तताएं रहीं के मुझे ब्लॉग जगत से दूर रहना पड़ा...अब इस हर्जाने की भरपाई आपकी सभी पुरानी रचनाएँ पढ़ कर करूँगा....कमेन्ट भले सब पर न कर पाऊं लेकिन पढूंगा जरूर

    प्यार को परिभाषित करती आपकी ये रचना बहुत सुन्दर है

    नीरज

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    1. आप आये ..बहुत अच्छा लगा.आप पिछ्ला पढ़ लीजिएगा अपनी सुविधानुसार...कमेन्ट करने की कोई बाध्यता नहीं है.

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  3. ये प्यार ....सच हैं ना.....खूबसूरत एहसास

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    1. बहुत खूबसूरत...यकीनन

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  4. सुंदर एह्सास ...रमता जा रहा है मन ...

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  5. प्यार के संबंध में बहुत सुंदर अहसास हैं आपके...प्यार में तन्हाई भी अच्छी लगती है क्योंकि इस तन्हाई में प्रेमी की विभिन्न छटाएं मन के पर्दे पर स्वत: उभरती रहती हैं और ऐसे में व्यक्ति तन्हा रहता ही कब है...तन्हाई की परिभाषा ही बदल जाती है और तथाकथित महफ़िलों से दिल उचाट सा हो जाता है...क्योंकि वहां की भीड़ में प्रिय की तस्वीर धुंधली सी होने लगती है...आपकी कविताओं में प्रेम के सबरंग हैं। आभार !!!

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    1. मनोज जी इतनी तारीफ़ के लिए,शुक्रिया!!

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  6. पुनश्च:एकलखुरा नए शब्द प्रयोग के लिए बधाई.

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टिप्पणिओं के इंतज़ार में ..................

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