Sunday, November 13, 2011

रेलगाड़ी की पटरियां


मेरे शहर के करीब से होकर....
वो तेरा गुज़रना...
रेल से.
तुम्हारा,
मन नहीं हुआ..
कि,मिलते चलो .
सदा ....
ऐसे ही रहेंगे क्या ,हम?
रेलगाड़ी की पटरियों की तरह
साथ चलते हुए भी..
कभी न मिल पाने को ...मजबूर .

22 comments:

  1. सोच का सफ़र कहाँ कहाँ पहुँच जाता है ... बहुत ही अच्छी लगी रचना

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  2. बहुत अच्छे भाव व्यक्त किए हैं आपने !

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  3. उफ्फ...ये फासला......

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  4. साथ रहते हुए भी एक ना होना... बेहद दुखद होता है
    परंतु साथ होना भी कम ना होता है।

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  5. kshitij par to milte huye dikhenge na....bahut acchi rachna....

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  6. खुबसूरत भावाभियक्ति....

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  7. रश्मिप्रभा जी...जान कर अच्छा लगा कि रचना आपको अच्छी लगी .

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  8. कुमार...उफ़ के अलावा कुछ किया भी नहीं जा सकता ..इस तरह के फासले के लिए .

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  9. ह्यूमन ...थैंक्स!!

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  10. संगीता जी...हार्दिक धन्यवाद!!

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  11. विवेक जी...साथ चल के भी ..मिल न पाने की पीड़ा बहुत होती है

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  12. प्रियंका....शुक्रिया!!क्षितिज पे मिलना ...आभास ही तो है...वास्तव में मिलन कहाँ?

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  13. सुषमा....आभार !!

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  14. महेंद्र जी......हार्दिक धन्यवाद !!

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  15. बहुत दर्द भरा है ..इस कविता में.

    मायूस न हो ऐ दिल
    मिलेंगे जरुर ..इस जहाँ में
    नहीं तो उस जहाँ में.

    बहुत सुन्दर लिखा आपने.

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  16. शुक्रिया......संतोष जी.
    उम्मीद पे दुनिया कायम है.

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  17. आप बहत अच्छा लिखती है मैं आपसे बहुत प्रभावित हूँ निधि जी !!

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  18. ...


    "गुज़र गयी..
    शहर से तेरे..
    ना गुज़र सकी..
    मेरी यादों के झरोखों से..
    पानी की कतार..!!!"

    ...

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  19. संजय जी...आपका शुक्रिया!!

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  20. प्रियंका.....यूँ बिना मिले...शहर से गुजरना ..अच्छा है क्या?

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सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

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