Sunday, March 6, 2011

सूनापन ..............

मेरा सूनापन ..............
तुम्हारा  सूनापन ...............
चलो ,
गणित  के  किसी  सवाल  के  जैसे
समान  चीज़  को  काट  दें
और  शुन्य  कर  लें .
मेरा  ,तुम्हारा  सूनापन
आपस  में  कट  जाएँ
और  हो  जाएँ  ख़तम
फिर  हमारे  प्यार  की  पूर्णता  में  से  पूर्ण  निकले  भी  तो .......
शेष  रह  जाए
केवल  प्यार  और  अपनापन

10 comments:

  1. Mohammad ShahabuddinMarch 6, 2011 at 10:10 PM

    निधि: अति सुन्दर... काश यह सूनापन जिस प्रकार से तुमने कहा है उसी प्रकार से आसान होता, कि गणित के सवाल की तरह घटाया जा सकता होता, परन्तु इतना आसान नहीं होता है..

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  2. MS...............हिन्दी में लिखी आपकी टिपण्णी पढ़ कर मज़ा आ गया ...............हाँ , ये बिलकुल भी आसान नहीं होता की सूनापन ख़त्म हो जाए पर हाँ दो लोगो का सूनापन ........मिलने पर ...ख़त्म हो कर अपनेपन को जन्म ज़रूर दे देता है

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  3. Mohammad ShahabuddinMarch 6, 2011 at 10:29 PM

    इतना आसान नहीं होता है..
    ज़िन्दगी क्यूँ हमें इस तरह राह पर लाकर छोड़ देती है, एक खला जो रूह को झिंझोर देती है, एक खालीपन एक सूनापन छोड़ देती है, रूह पर एक बोझ रह जाता है, न जीने देती है न मरने देती है..

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  4. Nidhi, a few weeks ago, when I was in India, I read a few poemes in the latest issues of Hans, and I for one believe that your poems are better than those. So why not submit your poems to Hans and other leading magazines.

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  5. बेहतरीन आकलन ... लेकिन निधि गणित में ...
    सूनापन / सूनापन = 1
    और एक ही 'प्यार' और 'अपनापन' ..
    ... वाह क्या बात है.. उम्दा

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  6. अमित.......रचना को सराहने के लिए आभारी हूँ .......अपनी रचना में मैं क्या कहना चाह रहीं हूँ ये समझने की कोशिश आपके द्वारा की गयी ,इसके लिए शुक्रगुजार हूँ .......

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  7. निधि ! क्या तुम्हें याद है - मैंने एक बार तुमसे कहा था कि तुमको बहुत सरल , सहज और नपे-तुले शब्दों में बड़ी गहरी बात कह देने का हुनर आता है !!!......आज तुमने मुझे फिर से इस हुनर की एक और बानगी दिखा दी......इशोपनिषद का संपूर्ण सार तुम्हारी इस पूर्णता कि कल्पना में समाहित है ....." पूर्णं अदह पूर्णं इदं पूर्णात पूर्णं उदच्यते ; पूर्णस्य पूर्णं आदाय पूर्णमेव अवशिष्यते !!! " ...........
    हाँ ! ये भी सच है कि हम सब अपने अंतस में एक विराट अंतहीन सूनापन जीते हैं .....वो जो बच्चन जी के शब्दों में - " तन की सौ सुख सुविधाओं में , मेरा मन वनवास दिया सा ....." भी है ......और अपनी समस्त कुंठाओं , पीड़ाओं को अकेले झेलने की यंत्रणा भी है !!!........कभी कभी सच में ये लालसा होती है कि कोई दूसरा होता जिसने इस वेदना को ...इस त्रास को स्वयं जिया होता .....जिसने इस सूनेपन कि पीड़ा का भार स्वयं भोग होता .....तो संभव है ...कि स्नेह का एक नया समीकरण बन जाता ......मेरा एकाकीपन उस के नितांत अकेलेपन का विष-हर हो जाता !..........मन में हिम सा जमा हुआ सारा मौन बह जाता .....और उस गंगोत्री में हमारे मन प्राण भीग भीग जाते !!!

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  8. अर्चि दी,आप जब कभी टिपण्णी करती हैं आप कविता की तह तक पहुँच जाती हैं.......जो बातें हमसे भी कहने से छूट गयी होती हैं वह आप अपनी टिपण्णी में समेट लेती हैं ..................आपके गद्य में भी काव्य सी कोमलता है ..........मन को छू लेने की क्षमता है ....मुझे तो लगता है की कुछ दिनों बाद लोग मेरी रचनाओं को पढने की जगह आपकी प्रतिक्रिया एवं टिपण्णी पढने मेरे ब्लॉग पर आयेंगे.........

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  9. Replies
    1. तहे दिल से शुक्रिया!

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टिप्पणिओं के इंतज़ार में ..................

सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

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