Wednesday, February 2, 2011

पेपरवेट

पेपरवेट 
सवेरे से लेकर रात तक
रात से फिर सवेरे तक ,
मेरा काम ..........
तुम्हारी ज़िन्दगी व्यवस्थित करना.
मेरा अस्तित्व .........
जैसे एक पेपरवेट
जिसे बस कागजों के ऊपर रख दिया जाता है
जिससे  कागज़  उड़े  -बिखरे नहीं .
अपना कहने को ............
उसके पास कुछ नहीं
एक कागज़ भी नहीं .

4 comments:

  1. वाह....

    क्या उपमा दी है आपने एक स्त्री कि जिंदगी को..

    खूबसूरत से दिखने वाले, अलग अलग भिन्न भिन्न रूप रंग के Paperweight कि भांति स्त्रीयां भी अपना पूरा जीवन कुछ कोरे कागजों और कुछ भरे कागजों को सम्हालने में ही बिता देती हैं.

    फिर भी उन्हें जीवन कि सच्ची खुशियों के लिए कभी न खतम होने वाले समय के लिए WAIT कराया जाता है, paperWEIGHT कि भाँती !

    अति सुन्दर ! बहुत ही मार्मिक!

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  2. आदित्य................थैंक्स !की तुम्हे मेरी उपमा पसंद आई...

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  3. निधि जी आपकी रचना बहुत ही मौलिक और सुन्दर है...
    "अपना कहने को.. उसके पास कुछ नहीं, एक कागज़ भी नहीं..." यह काफी हद तक स्वीकार करने या न करने वाली स्तिथि है... किसी भी इंसान के लिए... मानो तो यह जग अपना है, वैसे तो अपनी औलाद भी कहाँ अपनी होती है...

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  4. विनयजी......यहाँ सब कुछ मानने पर ही तो आधारित है.......कुछ हताशा के क्षणों में लगता है कि कोई अपना नहीं .........बिलकुल तनहा हैं पर कभी यूँ भी होता है कि सारा जहां अपना लगने लगता है .....परिस्थितियाँ हैं....काहिर.आपने रचना को पसंद किया इस हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद

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टिप्पणिओं के इंतज़ार में ..................

सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

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