मिलते-मिलते प्रेम का हुआ जन्म
बढे इन मुलाकातों के सिलसिले
भावनाएं ह्रदय की लगी जुड़ने
आने -जाने लगे
एक दूसरे के ख़्वाबों-ख्यालों में
मैं और तुम से हो गए "हम"
.........उस प्रेम की डोर को अब तुमने तोड़ दिया है
यहाँ बीच राह में लाकर मुझे छोड़ दिया है.
मैंने इस सब के बाद भी तुमसे कुछ कहा नहीं
पर इसका यह अर्थ कतई नहीं
क़ि मुझे कुछ बुरा लगा ही नहीं.........
मुझे दुःख तो इतना हुआ था
क़ि शब्द ...निशब्द हो गए थे,
आँख में आंसू भर गए थे
पर,उससे भी अधिक दुःख मुझे तबसे है
जब उस दिन तुम्हें यह कहते सुना
क़ि जिसका जन्म हुआ है,उसकी मृत्यु निश्चित है
हमारे प्यार ने भी तो जन्म लिया था
इसलिए
वह भी अपना समय संपूर्ण होने पर समाप्त हो गया
.वो भावनाएं जो कभी जन्मी थीं
आज पड़ी हैं मृत्यु-शैया पर अपनी
क्योंकि
प्यार भी मर जाता है वह है अमर नहीं
तब मुझे क्रोध आया तुम पर
और तुम्हारे इस तथाकथित प्यार पर.....
तुमने जिस प्यार की बात की है
वस्तुतः वह स्वयं भी जीने लायक नहीं है
उसमें तो भावनाओं की मूक अभिव्यक्ति का स्थान नहीं है
वरन उसकी सीमा शरीर से शुरू होकर उसमें ही है सिमटती
क्योंकि.............................
तुम्हारा प्रेम है,प्रेम शरीर का
इसलिए शरीर की तरह वह भी मर जाता है
जबकि मेरा प्यार है प्यार आत्मा का
जो की अजर,अमर है मेरी आत्मा सा
जो सत,चित,आनंदस्वरूप है
जो स्वयं साक्षात ईश्वर रूप है.